Friday, August 9, 2013

..तब बुरी लगती थीं पिताजी की कही बातें

उस वक्त पिताजी की कही बातें अकसर बुरी लगतीं, लेकिन उनके जाने के बाद अब हर कदम पर उनकी कमी खलती है। इसे एक पीढ़ी का अंतर कहें या कुछ और, लेकिन हम दोनों के बीच कुछ ऐसा ही था। अकसर पिता के साथ विचारों का टकराव होता। 

चार बहनों के बाद मैं घर में सबसे छोटा था। एक उम्र तक तो उनके सामने गर्दन तक नहीं उठाई। बारहवीं करने के बाद गांव से शहर (देहरादून) आया तो देखा दुनिया में बहुत कुछ है, जिसके बारे में न कभी सुना न देखा। सपनों को जैसे पंख लग गए। कालेज जाने के लिए साइकिल की डिमांड रखी तो पिताजी एक पुरानी परंपरागत साइकिल खरीदने को तैयार हो गए। लेकिन तब तक जमाना, हीरो रेंजर का आ चुका था। यहां पर भी विचारों का टकराव हुआ और आखिर जीत मेरी हुई। 14 सौ रुपये मेरी गुल्लक में निकले। पांच सौ रुपये पिताजी ने मिलाए और अगले दिन कैनन बैरल टॉप मॉडल साइकिल घर आ गई।

दो साल बाद बाइक की चाह मन में जाग गई। पिताजी के सामने प्रस्ताव रखना कठिन था। आखिर,  माता जी के मार्फत प्रस्ताव रात को खाने की टेबिल पर पहुंचा। कई दिनों तक इस पर मंथन चला। लेकिन बात स्कूटर पर आकर अटक गई। मैंने बाइक और स्कूटर के बीच लाख अंतर गिनाए, लेकिन जीत स्कूटर की हुई।

एम.एससी का स्टूडेंट था, अपनी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए फोटोग्राफी करता था। फोटोग्राफरों की संगत में रहते-रहते कैमरों से जैसे प्यार हो गया। दूरदर्शन में उन दिनों (1998-99) बीटा कैन कैमरा इस्तेमाल किया जाता था। वही कैमरा मुझे पत्रकारिता में ले आया। कुछ दिन दूरदर्शन और एएनआई के साथ कैमरा भी चलाया और एंकरिंग भी की। कई पड़ावों को पार करते हुए आखिर प्रिंट मीडिया में रम गया। पिताजी चाहते थे अपने व्यवसायिक जीवन में मैं दस से पांच की नौकरी करूं। लेकिन मैं उनकी यह इच्छा पूरी नहीं कर सका।
जब पिताजी से आखिरी बार बात हुई…
शुक्रवार, 13 जुलाई, 2012 : दोपहर 1 बजे के आसपास पिताजी से फोन पर बात हुई। उन्होंने कहा, शनिवार-रविवार बच्चों की छुट्टी है, उन्हें घर (रानीपोखरी) लेकर आना। आंगन में खड़े पेड़ पर आम पकने लगे हैं। मिलकर खाएंगे। ‘अदिति स्कूल से घर आ गई होगी, उससे कहो, दादाजी ने उसके लिए चाकलेट लाकर रखी है, दादाजी से बात कर ले।’ लेकिन उस दिन अदिति ने दादाजी से बात नहीं की। मैंने कहा, मेरा तो कल ऑफिस है, बच्चों को भेज दूंगा, मैं रविवार सुबह आ जाऊंगा। …और हमारा वार्तालाप समाप्त हो गया।

इसके बाद ठीक डेढ़ बजे पड़ोस में रहने वाली निर्मला भाभी का फोन आया- ‘विनोद जल्दी से घर आ आ जा, पिताजी छत की सीढ़ियों से गिर गए हैं, उन्हें बहुत चोट आई है।’, ‘गांव वाले उन्हें लेकर अस्पताल जा रहे हैं, तू जल्दी पहुंच।’

अनहोनी की आशंका में मैंने जल्दी से कृष्णा (पत्नी) को फोन लगाया और तुरंत ऑफिस से घर पहुंचने को कहा। इतनी देर में आदित्य (बेटा) भी स्कूल से घर आ चुका था। आधे घंटे के भीतर हम घर के लिए निकल पड़े। देहरादून से चलकर डोईवाला मणीमाई मंदिर के पास ही पहुंचे थे, अनहोनी की आशंका सच साबित हुई और मुझे मेरे पिता की मृत्यु का समाचार मिला।

उनकी मृत्यु के एक साल बाद आज भी रात को सोते हुए उनका चेहरा मेरी आंखों के सामने आ जाता है। मन इस उधेड़बुन में उलझकर रह जाता है कि आखिर मेरे पिता की मृत्यु कैसे हुई। जब वे सीढ़ियों से गिरे थे तो उनके सिर पर चोट आई थी। काफी खून भी बहा था। लेकिन, मौके पर मौजूद लोगों ने कहा, पंडित जी को हार्टअटैक आया था, जिसकी वजह से वे सीढ़ियों से गिर गए थे। वे पहले ही तीन अटैक झेल चुके थे। 
पूरा हुआ एक साल का व्रत
मेरी चार साल की बिटिया बहुत खुश थी। उसकी खुशी की वजह भी बहुत खास थी। दादाजी की बरसी (1 अगस्त) पर उसने चहकते हुए बुआ, मामा, दादी, सभी से कहा- अब तो पापा मेरे बर्थडे पर बाहर से आया केक भी खा सकेंगे। …और किसी शादी में जाने के बाद घर आकर मम्मी को पापा लिए खाना नहीं बनाना पड़ेगा।

Wednesday, July 24, 2013

मैं देर करता नहीं, देर हो जाती है…

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब

मेरे पिताजी भी अकसर इस बात को दोहराते थे। लेकिन, उनकी इस बात को हम भाई-बहन अकसर उल्टे चश्मे से देखते। अब अपने बच्चों को यही सीख देते हैं, तो वे भी भूतकाल को दोहराते नजर आते हैं। वक्त का फेर है, जिसकी पाठशाला में बात कभी जल्दी तो कभी देर में समझ आती है। कई बार इतनी देर हो जाती है, वक्त ही हाथ से निकल जाता है।

पहला वाकया मुरादाबाद का
तीन साल पहले ‘अमर उजाला’ मुरादाबाद में था। बच्चों से दूर अकेला रहता था। खूब समय था मेरे पास। आफिस के सीनियर साथी आशीष शर्मा जी केसाथ एक योगा सेंटर ज्वाइन कर लिया। रात को डेस्क पर काम करते हुए 2 बजे के आसपास छूटते थे। सुबह 10 बजे जब हम सेंटर पहुंचते, तब तक सभी लोग जा चुके होते थे। विशेष अनुरोध पर सेंटर संचालक इस समय पर हमें योग सिखाने को तैयार हुआ था।
खैर, चार महीने दोनों ने गिरते-पड़ते कोर्स कर लिया। काफी मशक्कत के बाद दोनों ने कुछ इंच पेट कम कर लिया। वजन में भी कमी आई। मैंने दो और आशीष जी ने अप्रत्याशित चार किलो वजन कम कर लिया। उस वक्त योगाचार्य ने कहा था, जितना मैंने तुम्हें सिखाया है, उसका आधा भी रोज कर लोगे, जिंदगी में कभी डाक्टर के पास जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। मन ने भी ठान लिया था, आगे योग जारी रहेगा। किराए के कमरे में नियमित योगाभ्यास किया जाने लगा। सुस्ती के कारण धीरे-धीरे इस समय में कटौती होने लगी। इसके बाद देहरादून ट्रांसफर हो गया। घर-गृहस्थी के पचड़ों में ऐसा फंसा, अब तक फिर शुरू नहीं कर सका। रोज सोचता हूं, कल से शुरू करूंगा…। लेकिन उत्साह का संचार फिर अगले दिन के झंझावतों के फेर में आकर ठंडा हो जाता है।

दूसरा वाकया ताजा-ताज है
केदारनाथ आपदा के बाद मन में प्रभावित क्षेत्रों में जाकर रिपोर्टिंग करने की इच्छा थी। डेस्क पर साथियों की कमी के चलते पहले तो संपादक जी से बात करने की हिम्मत ही नहीं हुई। फिर सोचा भेजें न भेजें, बात करने में क्या बुराई है, कल जरूर बात करूंगा। ऐसे करते-करते दो-तीन दिन निकल गए। जिस दिन मन पक्का करके आया, उसी दिन पता चला, संपादक जी दो साथियों को भेज चुके हैं। फिर मेरा वह कल दोबारा नहीं आया।

बहुगुणा जी ने भी देर कर दी
जो फावड़ा मुख्यमंत्री जी ने दो दिन पहले उठाया है, यही काम 15 दिन पहले कर लिया होता तो ज्यादा अच्छा होता। खैर, देर आए दुरुस्त आए… उनकी इस पहल को सकारात्मक रूप से देखा जाना चाहिए।

Wednesday, June 26, 2013

मैं ‘पहाड़’ हूं, पीड़ा में हूं...

देहरादून/विनोद मुसान | अंतिम अपडेट 25 जून 2013 6:17 PM IST पर

uttarakhand disaster
मैं ‘पहाड़’ हूं, पीड़ा में हूं। यूं तो मेरी छाती पर कई बार छेणी-हथौड़े चले। जेसीबी और गोला-बारूद से भी मेरा सीना कई बार छलनी हुआ। मैं चुप रहा...।लेकिन, इस बार पीड़ा हो रही है। नए तरह के जख्म मिले हैं, जिनका दर्द मैंने कभी महसूस नहीं किया। मुझ पर लूट-खसोट और सीनाजोरी का आरोप लगा है। कैसे सहन करूं।मेरे बच्चे आज भी जब गांव-गदेरों को लांघकर रोजगार की तलाश में दूर देश जाते हैं, ‘पहाड़’ शब्द का सर्टिफिकेट उनको पंक्ति में आगे खड़ा कर देता है। फिर किसी और की कारस्तानी का इलजाम कैसे मैं अपने सिर ले लूं। कुछ बिगड़ैलों के कारण आज मेरा पूरा परिवार बदनाम हो रहा है।

यात्राकाल में आई विभीषिका में देशभर से आए तीर्थयात्री ही हताहत नहीं हुए हैं। जल प्रलय ने पहाड़ के सैकड़ों घरों के दीप भी बुझा दिए हैं। घाटियों में रहने वाले जो लोग बचे हैं, उनके सामने जीते-जी मरने जैसी स्थिति पैदा हो गई है।सड़क, संचार, बिजली-पानी ने तो साथ छोड़ा ही, अब राशन भी खत्म होने को है। ऊपर से कुछ लोगों की कारगुजारी के बाद लूट-खसोट के जो इलजाम पहाड़ के लोगों पर लग रहे हैं, उससे लोग सबसे ज्यादा आहत हैं।
केदारघाटी में आई विपदा के बाद कुछ यात्रियों द्वारा एक समुदाय विशेष पर लूट-पाट और मारपीट के आरोप लगाए जा रहे हैं। स्थानीय दुकानदारों पर रोटी-पानी और अन्य जरूरी चीजों के दाम ज्यादा वसूले जाने के आरोप लग रहे हैं।
इस हकीकत से एकदम मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है। लेकिन, यह भी सत्य है पहाड़ ने अपना पेट काटकर कई लोगों की जिंदगी बचाई है। अभी तक शासन-प्रशासन ने लेकर सेना तक का पूरा ध्यान यात्रियों को सकुशल निकालने पर केंद्रित है।
कई-कई गांव भी आपदा का शिकार हुए हैं। जिनकी ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा। वे बुरी स्थिति में हैं। उन्होंने इन हालात में भी मानव धर्म नहीं छोड़ा है। कई मुसाफिरों ने आपबीती में इस बात को स्वीकार किया, पहाड़ के लोग समय पर आसरा नहीं देते तो आज हम जिंदा न होते।
माटी का ढेर था बिखर गया, फिर जोड़ लेंगे...
यहां तो जिंदगी का पूरा ताना-बाना ही ताक पर लग गया है। तिनका-तिनका जोड़ जिन घरौदों को खड़ा किया, आधे उनमें से ध्वस्त हो गए, जो बचे हैं अब उनमें जिंदगी कितने दिन महफूज रहेगी, कोई नहीं जनता। माटी का ढेर था बिखर गया, फिर जोड़ लेंगे। लेकिन जिंदगीभर जिस साख के लिए जाने जाते रहे, उस पर कुछ लोगों ने सवाल उठाए हैं। यह ठीक नहीं है।
चंद लोगों ने ऐसा किया, लेकिन हकीकत यही है ज्यादातर लोगों ने अपना पेट काटकर आपदा में फंसे मुसाफिरों को बचाया है। जबकि अब उनके सामने खुद रोटी का संकट खड़ा है। जब हकीकत सामने आएगी सब जान जाएंगे, पहाड़ का आदमी देना जानता है, छिनना नहीं।

हमने कहा, चलो पुलिस के पास तो बंगले झांकने लगे

दो दिन पहले फोन पर एक मित्र ने उत्तरकाशी बाजार का एक किस्सा सुनाया। यहां यात्रा रूट पर स्थानीय लोगों द्वारा कई राहत कैंप लगाए गए हैं। ऐसे ही एक राहत कैंप में एक महिला-पुरूष ने स्थानीय लोगों पर उनके जेवर उतरवाने और बदसलूकी करने का आरोप लगाया।
मौके पर मौजूद 15-20 नौजवानों की मुट्ठियां तन गई। पहले तो युवकों ने कहा, चलो हम आपके साथ चलते है, किसने आपको लूटा है। लेकिन दंपति ने मना कर दिया। फिर लोग उन्हें लेकर थाने चलने लगे। थाने के बात सुनकर दंपति बंगले झांकने लगे और धीरे-धीरे भीड़ में इधर-उधर हो गए।

Friday, January 27, 2012

कहां हैं सब लोग
मंच खाली है। कहां चले गए सब लोग। मैं आजकल चुनाव में व्यस्त हूं।

Tuesday, September 28, 2010

जो अतिथि दे वो भला

बालम सिंह गुसाईं
अतिथि देवो॒भवः की परंपरा का निर्वहन करते करते भारतीय अब थक चुके प्रतीत होते हैं। अतिथि को देवता समान मान उनकी सेवा करना तो अब किताबों कहानियाें में ही पढ़ने या सुनने को मिल जाए तो गनीमत समझिए। कुल मिलाकर आधुनिक इंडिया में नई परंपरा जन्म ले रही है वो है ‘अतिथि दे वो भला’। और जो न दे वो भूला ही सही।
कुछ विद्वान लोग इस परंपरा से खासे नाराज हैं, उनका मत है कि देश की संस्कृति, संस्कारों, परंपराओं को भूलना या उनसे छेड़छाड़ करना दंडनीय अपराध है। भला अब इन्हें कौन समझाए, पहले देश सोने की चिड़िया था, जिसे जरूरत महसूस होती उसे तब सोने के अंडे मुफ्त बांट दिए॒जाते, पर अब हालात बिलकुल बदले हुए॒हैं। यहां तो खुद भूखों मरने की नौबत आन पड़ी है, महंगाई के मारे सांसत में जान पड़ी है। ऐसे में भला हम किसी को क्या दें, जब खुद मांगने की नौबत आई हुई है। हालात यह हैं कि महीने में कई दिन तो पड़ोसियाें की चीनी, नमक से ही काम चलाना पड़ता है। ले देकर जो दिन कट जाए वो अच्छा, पर वापस देना भी तो पड़ता है। चालीस की चीनी लौटाना तो ठीक, अब तो नमक का भी हिसाब देना पड़ता है। जब नमक तक का हिसाब मांगा जाए, तो भला अतिथि की सेवा करने का जोखिम कौन उठाए।
आइये, अतिथि दे वो भला की नई परंपरा पर गौर फरमाइये.. क्या नेता, क्या अभिनेता, ये अतिथि ही हैं हर किसी के चहेता। एक जन बोला, भला इनमें ऐसा क्या है, जो चाचा-ताऊ अन्य संबंधियों में भी ना है। मैंने कहा, भैय्या यही तो आधुनिक परंपरा है, जिसका पलड़ा भरा है, वो अतिथि ही सेवा करवाने के पैमाने पर खरा है। नेता,अभिनेता भूले से भी किसी के यहां आते हैं तो उसकी बंद किस्मत का ताला खोल जाते हैं। कुछ और हो न हो कम से कम ऐसे अतिथियों के आने मात्र से चंद दिन तो फिर ही जाते हैं। पड़ोसी तो पड़ोसी, हर गली मुहल्ले और मीडिया तक में आप सम्मान पाते हैं। जिनके सगे-संबंधियों की जेबें खाली हैं तो उनके सत्कार के लिए हर घर में कंगाली है।
तसवीर का एक पहलू और है। जिसमें कहीं देश में विदेशियों के साथ अभद्रता, तो कहीं उन्हें पर्याप्त सम्मान नहीं दिए जाने का शोर है। कोई बार-बार पूछ रहा है, ये कैसा दौर है? वजह क्या है ये कौन समझाए! बेहतर होगा किताबी बातें छोड़ हकीकत पर गौर फरमाएं! कोई पूछे तो बताएंगे, बशर्ते घर आएंगे तो क्या लाएंगे... और जाएंगे तो क्या देकर जाएंगे

Monday, September 13, 2010

क्या देख रहे हैं देश के हुक्मरान यह पाक नहीं हमारी जमीं है हिंदुस्तान



विनोद के मुसान
ईद उल फितर के दिन श्रीनगर के लाल चौक पर जो कुछ घटा, उसे देखकर किसी भी सच्चे हिंदुस्तानी का खून खौल सकता है। लाल चौक पर खड़े एतिहासिक घंटाघर पर एक बारफिर पाकिस्तान का झंडा फहराया गया। कई सरकारी बिल्डिंगों को आग के हवाले कर दिया गया। वाहन फूंके गए और तोड़फोड़ की गई। मुबारक पर्व पर जितना हो सकता था सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया। इससे ठीक पहले दहशतदर्गी फैलाने वाले यह सभी लोग ईद की नमाज अदा कर लौटे थे।
इस देश में रहकर दूसरे देश का झंडा फहराना, जिस थाली में खाना उसी में छेद करने जैसा है। अलगाववादी कुछ लोग कश्मीर की जनता को बरगला कर अपने नाकाम मनसूबों को अंजाम देने में लगे हैं। जिन नौजवानों के हाथों में किताबें होनी चाहिए थीं, उनके हाथों में सैन्य बलों को मारने के लिए ईंट और पत्थर दिए जा रहे हैं। मजहब के नाम पर उनकी जवानी को ऐसे अंधकार में धकेलने का काम किया जा रहा है, जहां से शायद ही वह कभी लौटकर वापस आ सकें।
देश का कोई नेता इन हालात को सुलझाने का प्रयास तक करता दिखाई नहीं दे रहा है। धर्मनिरपेक्षता की बात करने वाले और छोटी-छोटी बातों पर धरना प्रदर्शन करने वाले नेताओं की जुबान पर भी ऐसे मौके पर ताला लग जाता है। मीडिया की अपनी सीमाएं हैं। देश में अमन और शांति कायम रखने के लिए लाल चौक के उन दृश्यों को न दिखाने और मामूली कवरेज उस अघोषित रणनीति का हिस्सा होता है, जो लोकतांत्रिक देश की अखंडता के लिए जरूरी भी है।
कश्मीर में रोज खून की होली खेली जा रही है, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। आम जनता के खून पसीने की गाढ़ी कमाई इस तंत्र को यथावत रखने में लुटाई जा रही है, लेकिन हश्र सबके सामने है। विकास की बात तो दूर, सर्वविनाश करने वाले लोगों को रोका तक नहीं जा रहा है। सब जानते हैं मुठ्ठीभर दहशतगर्द नेता इस माहौल के लिए जिम्मेदार हैं।
उन पर लगाम लगाई जानी चाहिए। साफ होना चाहिए, वे जिस थाली में रोटी खा रहे हैं, उसमें छेद करने की जुर्रत न करें। नहीं तो अपना काला मुंह वहीं जाकर करें, जिसका गुणगान यहां रहकर कर रहे हैं।


Tuesday, August 10, 2010

गरम दूध है, उगला भी नहीं जाता, निगला भी नहीं जाता


विनोद के मुसान
राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन के संबंध में मीडिया में आ रही नकारात्मक खबरों के बाद शायद मेरी तरह प्रत्येक भारतीय दुविधा में होगा। गरम दूध है, उगले या निकले। बात सिर्फ एक आयोजन भर की नहीं है। देश के सम्मान की है। देश की भ्रष्ट राजनीति और अफसरशाही ने एक महा आयोजन से पूर्व देश के सम्मान को चौराहे पर ला खड़ा किया है।
कुछ दिन पूर्व तक प्रत्येक भारतीय का सीना इस आयोजन पर गर्व से फूला जा रहा था, वहीं पूरा विश्व हमारी ओर सम्मान से देख रहा था। लेकिन जैसे-जैसे इस महा आयोजन से जुड़ी भ्रष्टाचार की खबरें छनकर बाहर आ रही हैं, मन में कोफ्त हो रही है। अफसोस हो रहा है इस बात का कि पूरी दुनिया हमारे देश के बारे में क्या सोचेगी। घर की बात होती तो घर में दबा दी जाती। जैसा कि अक्सर होता आया है देश में तमाम घोटाले हुए, कई विवादों ने जन्म लिया और यहीं दफन हो गए। खेलों से पहले जो ‘खेल’ खुलकर सामने आ गए हैं, उसके बाद किसी भी भारतीय का उत्तेजित होना लाजमी है, लेकिन खेल का दूसरा पहलू यह भी यह ये खेल हमारे आंगन में हो रहे हैं। इनके सफल आयोजन की जिम्मेदारी भी हमारी है। नहीं तो देश-दुनिया में जिस शर्मिंदगी को झेलना होगा, वह इससे कहीं बड़ी होगी। मेरा मानना है मीडिया को भी इस मामले में थोड़ा संयम बरतना होगा। आखिर बात अपने घर में आई बारात की है। खेल सकुशल निपट जाएं, उसके बाद चुन-चुनकर इस भ्रष्टाचारियों को चौराहे पर जूते मारेंगे, जिन्होंने देश केसम्मान तक को दाव पर लगा दिया।

Sunday, June 20, 2010

मर्यादा में रहें, आपका स्वागत है


विनोद के मुसान
ऋषिकेश की हृदयस्थली और प्रमुख आस्था केंद्र त्रिवेणी गंगा घाट पर 13 जून की सुबह श्रद्धालुओं और गंगा सेवा समिति से जुड़े कार्यकर्ताओं ने जापानी पर्यटकों के दल के एक गाइड की जमकर धुनाई कर डाली।
आरोप था कि सप्ताह भर से त्रिवेणी घाट पर सुबह सवेरे जापानियों का यह दल पश्चिमी सभ्यता की तर्ज पर नंगधडग़ होकर गंगा की लहरों में मौज-मस्ती करने आ रहा था। जिससे आस्था के इस केंद्र में श्रद्धालु खुद ही शर्मिंदा हो रहे थे। उन्हें देखने के लिए यहां मनचलों की भीड़ भी लग जाती थी। पुलिस प्रशासन का तो इस ओर ध्यान नहीं गया, लेकिन स्थानीय लोगों ने विदेशियों के स्वदेशी गाइड को इस तरह की हरकतों से बाज आने को कहा। लेकिन वह नहीं माना। रविवार को सुबह जैसे ही गाइड विदेशी पर्यटकों को लेकर त्रिवेणी पहुंचा। गंगा सेवा समिति से जुड़े कार्यकर्ताओं ने गाइड की जमकर धुनाई कर दी।
घटना के बाद सवाल उठना लाजमी है कि यह कितना सही है और कितना गलत? एक ओर जहां हम पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए तमाम योजनाएं चलाते हैं, वहीं दूसरी ओर उनके साथ इस तरह का व्यवहार कहां तक सही है?
ऋषिकेश शुरू से ही विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहा है। विदेशी सैलानी यहां आकर गंगा तट पर अपार शांति प्राप्त करते हैं। टू-पीस बिकनी में गंगा तटों पर लेटे सन-बाथ लेना और अठकेलियां करना उनके लिए आम बात है। स्थानीय लोग भी पश्चिमी सभ्यता के इस रूप से भली-भांति परिचित हैं। इसलिए उन्हें कोई परेशान भी नहीं करता। वे स्वच्छंद रूप से गंगा तटों पर इसी तरह विचरण करते हैं। लेकिन दिक्कत तब होती है, जब ये सैलानी आस्था के उन घाटों पर इस तरह का व्यवहार करते हैं, जहां हिंदू संस्कृति इस बात की इजाजत नहीं देती।
हिंदुओं के लिए गंगा जल में स्नान करना आज भी कई जनमों में कमाए गए पूण्य के समान है। जबकि कुछ सैलानी इन घाटों पर ठीक उसी तर्ज पर स्नान करने उतरते हैं, जैसे फाइवस्टार होटल के किसी स्विमिंग पूल में।
मतलब साफ है, आप हमारे देश में आइए, आपका स्वागत है। घूमिए-फिरिए, खूब मौज-मस्ती किजिए, लेकिन ध्यान रखिए किसी की धार्मिक भावनाएं आहत न हों।
हम आज भी अतिथि देवो भव: में ही विश्वास करते हैं। लेकिन, इसकी पहली शर्त ही मर्यादा है, जिसमें रहते हुए विदेशियों को ही नहीं, हर उस व्यक्ति को सम्मान मिलेगा, जो हमारे प्रदेश में आया है।

Saturday, June 12, 2010